हम में से बहुत से लोग अक्सर अहिंसा की बात करते हैं. कहते हैं कि हमें अपने जीवन में अहिंसा का मार्ग अपनाना चाहिए. पर अहिंसक होना आसान नहीं है. अहिंसा का अर्थ सिर्फ इतना नहीं है कि हम दूसरे प्राणियों पर दया करें. उन्हें न मारें और न ही कोई और कष्ट पहुंचाएं.
अहिंसा में मानवीय संवेदनाएं , जीवन - मूल्य , आदर्श और सात्विक वृत्तियां आदि बहुत कुछ शामिल हैं. सदाचार और विचारों की शुद्धता आदि सभी नैतिक सूत्रों का आधार है अहिंसा। यह धर्म का सच्चा स्वरूप भी है. सर्वधर्म समभाव की आधारशिला है , समता , सामाजिक न्याय और मानव प्रेम की प्रेरक शक्ति भी है. सच्ची अहिंसा वह है जहां इंसान के बीच भेदभाव न हो , सारे अंतर हट जाएं.
महात्मा गांधी ने कहा है , ' अहिंसा और सत्य का मार्ग जितना सीधा है , उतना ही तंग भी. यह तलवार की धार पर चलने के समान है. बाजीगरी दिखाने वाला नट एक तनी हुई डोर पर सावधानी से नजर रखकर चल सकता है लेकिन सत्य और अहिंसा की डोर तो उससे भी पतली है. जरा सा चूके नहीं कि नीचे गिरे. '
असल में अहिंसक जीवन जीना बहुत बड़ी साधना है. यह सच है कि ज्यादातर लोग अहिंसक होने का ढोंग करते हैं। वास्तविकता में वे अहिंसक जीवन जी नहीं पाते हैं. अहिंसा का दावा करने वाले कुछ लोग कीडे़ - मकोड़ों को तो बचाने का प्रयत्न करते हैं किंतु भूखे , नंगे और गरीब लोगों को देखकर उनके मन में तनिक करुणा नहीं जगती.
बहुत बडे़ - बड़े अहिंसावादी लोग भी अपने नौकरों के साथ जैसा व्यवहार करते हैं , उसे देखकर बहुत कष्ट होता है. ऐसे लोग हरी सब्जी खाने में तो हिंसा मानते हैं लेकिन अपने ऊपर आश्रित लोगों को पीडि़त और प्रताडि़त करने से नहीं चूकते. या फिर उनका शोषण करने को चतुराई मानते हैं. यह हमारी अहिंसा की विडंबना है.
मंदिर जाना और भजन - कीर्तन करना , यह सब तो व्यक्तिगत साधना के तौर तरीके हैं. यदि कोई समझता हो कि इन तरीकों से अहिंसा की साधना पूरी हो जाएगी तो यह उसका भ्रम है. दूसरों के साथ हमारा व्यवहार कैसा है , यह देखकर ही हमारे अहिंसक जीवन की सत्यता और सार्थकता स्पष्ट हो सकती है.
तीर्थंकर महावीर के अनुसार दृष्टि निपुणता तथा सभी प्राणियों के प्रति संयम ही अहिंसा है. दृष्टि निपुणता का अर्थ है - सतत जागरूकता और संयम का अर्थ है - मन , वाणी और शरीर की क्रियाओं का नियमन. जीवन के स्तर पर जागरूकता का अर्थ तभी साकार होता है जब उसकी परिणति संयम में हो. संयम का लक्ष्य तभी सिद्ध हो सकता है जब उसका जागरूकता द्वारा सतत दिशा - निर्देश होता रहे.
भगवान महावीर ने दूसरों के दुख दूर करने को अहिंसा धर्म कहा है. खुद महावीर का जीवन आत्म साधना और उसके बाद सामाजिक मूल्यों को प्रतिष्ठा दिलाने में व्यतीत हुआ. वास्तव में भगवान महावीर का प्रयास उस वैज्ञानिक की तरह था जो समाज को जड़ बनाने वाली कुरीतियों और व्यर्थ की मान्यताओं को परे धकेल कर लोगों का जीवन बदलने वाली बातें अपनी प्रयोगशाला में खोजता है.
उन्हें महसूस हुआ कि आर्थिक असमानता और वस्तुओं का अनावश्यक व अनुचित संग्रह सामाजिक जीवन में असंतुलन पैदा करता है. ऐसी ही लोभ वृत्तियों के कारण एक इंसान दूसरे का शोषण करता है. लोभ बढ़ते जाने के कारण समाज में अनेक लोग कष्ट का अनुभव करते हैं. इसीलिए महावीर ने अपरिग्रह पर जोर दिया ताकि समाज से आर्थिक असमानता मिट सके.
खुद संपन्नता में रहना लेकिन धन के लिए दूसरों का शोषण करना भी एक तरह की हिंसा है. लेकिन हिंसा सिर्फ अर्थ के स्तर पर ही नहीं होती , भावना व विचार के स्तर पर भी होती है. अपने विचार दूसरों पर लादकर उन्हें उसके अनुरूप चलने के लिए बाध्य करना भी हिंसा है. धर्म के नाम पर होने वाली ऐसी हिंसा के कारण सांप्रदायिक उन्माद फैलता है.